सोनिया शर्मा
शस्य श्यामला धरती में सरसों का स्वर्णिम सौंदर्यकोकिल के मधुर गुंजन से झूमती अमराइयों में गुनगुनाते भौरों की धुन पर थिरकती सूर्य की रश्मियों को देखकर सुमित्रानंदन पंत कहते हैं - प्रकृति जड़ वस्तु नहीं क्योंकि वसुधा के श्रृंगार से उसका यौवनसार मनोरम हो गया है। कामदेव के प्रभाव से बचाने के लिए सरस्वती की वंदना करते हुए ऋग्वेद में कहा गया है
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
अर्थात हे मॉं सरस्वती परम चेतना स्वरूप हमारी बुद्धि प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हममें जो आचार और मेधा है उसका आप ही आधार हैं। इसलिए बसन्त पंचमी को विद्यारम्भ नवीन विद्या प्राप्ति एवं गृह प्रवेश जैसे शुभ कार्यों के लिए अत्यंत शुभ माना गया है।
सरस्वती ज्ञानियों का क्षेत्र है जैसे लक्ष्मी या धन वैश्य-बनियों (व्यापारियों) और दुर्गा या शक्ति क्षत्रियों (भूस्वामियों) का क्षेत्र। इसे साधको और कलाकारों तक विस्घ्तारित किया जा सकता है। सरस्वती का संबंध आत्म-ज्ञान से है जो हमें पशुओं से अलग करती है। सरस्वती शब्द संस्कृत मूल सरस से उपजा है जिसका अर्थ तरल है जिसे या तो सरोवर में समाहित किया जा सकता है अथवा सरिता के रूप में प्रवाहित किया जा सकता है।
प्राणी भोजन प्राप्त करने के लिए लक्ष्घ्य (लक्ष्मी) तथा कहीं वह स्वयं अन्य का आहार न बन जाए इसके लिए शक्ति (दुर्गा) की तलाश करता है। सामाजिक विज्ञान में लक्ष्मी का अध्ययन अर्थशास्त्र बन जाता है और दुर्गा का अध्ययन राजनीति। जबकि सरस्वती का अध्ययन दर्शन बन जाता है। विज्ञान द्रव्घ्य और मापन (सगुण) पर केंद्रित है जबकि दर्शन स्घ्थूल की बजाय सूक्ष्घ्म अथवा दिव्यकल्पनीय (निर्गुण) लोक से आवृत होता है। अर्थात विज्ञान का आत्मज्ञान से कोई संबंध नहीं है। विज्ञान ऐसी तकनीक (तंत्र) साबित हुआ है जो हमें दुनिया को नियंत्रित करने में सक्षम बनाता है। इसने एक पीढ़ी को आग पर तो दूसरे ने वनस्पतियों पर नियंत्रण का अन्वेषण किया। इसलिए कृषि पहिया विद्युत माइक्रोचिप की खोज ने हमारी जीवनशैली को प्रभावित किया।
मानव वह है जो मनुष्यता के लिए भविष्य की समस्याओं की परिकल्पना करने में सक्षम बनता है इसलिए नवाचार आविष्कार और सबसे गंभीर रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सीखने को प्रेरित करती है जो कि किसी अन्य प्राणी में नहीं देखा जाता है। प्रत्येक मानव पीढ़ी अतीत में प्राप्त ज्ञान का लाभ उठाकर फलती-फूलती है। इसलिए मानव प्रजाति में निरंतर कौशल और ज्ञान का उन्नयन होता है जिसे मानवीय सभ्यता का घटक माना जाता है। विश्व को नियंत्रित करने और स्वयं को धन और शक्ति से संपन्न बनने की यह इच्छा भय उत्घ्पन्घ्न करती है। सरस्वती वह दर्शन है जो हमें अभयोन्घ्मुख करती है। संसार के वास्तविक स्वरूप को समझकर अभय प्राप्ति का यह ज्ञान वेद कहलाता है। वेद से ज्ञात होता है कि भय अहंकार (अहम्) उत्पन्न करता है और बढ़ते डर से मन (ब्राह्मण) का विस्तार होता है और उससे हमारे वास्तविक स्वरूप (आत्मा) की खोज होती है जो शांत (आनंद) और प्रेम से परिपूर्ण है। हमें बताया गया है कि लक्ष्मी (धन की देवी) और सरस्वती (ज्ञान की देवी) एक ही स्थान पर रहने से बचते हैं। यह इस धारणा पर आधारित है कि अमीर व्यवसायी (बिल गेट्स और स्टीव जॉब्स दोनों कॉलेज ड्रॉपआउट थे) अशिक्षित होते हैं और शिक्षित गरीब(शोषण से कराहते मध्यम वर्ग) होते हैं।
सरस्वती वह ज्ञान और कला-कौशल है जिसके अभ्यास से धन उत्पत्ति की संभावना बढ़ती जाती है । सरस्वती की आवश्यकता न केवल धन उत्पत्ति में बल्कि उसे बनाए रखने का स्रोत भी है। सरस्वती को हम विद्यालयों से प्राप्त ज्ञान तक संकुचित रखते हैं। लेकिन अंग्रेज़ी राज में पर्याप्त विद्यालयों के अभाव में हमने अपरेंटिस मॉडल का उपयोग करके कार्य किया। कुम्हार ने मिट्टी के बर्तनों की सरस्वती अपने पुत्रों को दी माताओं ने अपनी बेटियों को पाक(व्यंजन) कला की सरस्वती दी जिसने बुद्धि को सामाजिक प्रतिबिंब या तपस्या के माध्यम से समुन्नत किया।
जब हम सरस्वती की बात करते हैं तो हमारे मस्तिष्क में जो छवि उभरती है वह एक देवी की होती है जो सफेद कपड़े पहनती है और हाथ में एक वीणा (वीणा) रखती है लेकिन वेद अध्ययन पर हम उसे सरस्वती नदी के रूप में पाते हैं। साहित्य और संगीत के संपर्क में आने पर हमारे चैतन्य में प्रवाहित होने वाले रस का संग्रह सरस्वती नदी के प्रतीक में प्रेरक बन जाता है। इस प्रकार यह ज्ञान-कलाओं की एक मनोवैज्ञानिक नदी है।
वेदों में वाक् की देवी नामक का उल्लेख है। क्योंकि वाणी भाषा और शब्द मौखिक संस्कृति होने से स्वर-शैली विज्ञान व्याकरण और वाक्य विन्यास सरस्वती से संबंध रखता है। इसका प्रमाण दूसरी शताब्दी ईस्वी के मथुरा स्थित जैन मंदिर से मिलती है। क्योंकि तीर्थंकरों के ज्ञान को सुनना (श्रुति) है इसलिए यहॉं हाथ में पुस्तक धारण किये मॉं सरस्वती का दर्शन होता है जिसे जैन धर्म में श्रुता-देवी के रूप में जाना जाता है।
बौद्ध धर्म में देवी सरस्वती का महा-याना के रूप में दर्शन होता हैं जो 7 वीं शताब्दी में एलोरा की गुफाओं से तारा देवी के रूपक में बुद्ध की करुणा को सतह पर लाकर उन्घ्हें भगवान बनाती है।
5वीं सदी पश्चात जब पुराणों ने ज्ञान की व्याख्या के लिए त्रिमूर्ति को समेकित कर पत्नी के साथ संदर्भित किया तब सृष्टि सृजग ब्रह्मा को ज्ञान की अवतार सरस्वती के साथ संयोजित किया गया। उन्हें स्मृति माला एक किताब एक कलम और एक दवात और वीणा (वीणा) पकड़े हुए चित्रित किया गया।
13वीं शताब्दी तक जब खजुराहो और गंगईकोंडा चोलपुरम बृहदीश्वर के मंदिरों का निर्माण किया जा रहा था हम सरस्वती की स्वतंत्र प्रतिमाओं को मंदिरों के ताकों पर फलते-फूलते पाते हैं। वह हंस से जुड़ी है जो दूध को पानी से अलग कर सकता है जो बौद्धिक विवेक का सूचक है।
कलाओं को हमेशा प्रलोभन और कामुकता से जोड़ा गया है। यह गंधर्व-विद्या है जिसका उद्देश्य उन्माद और इंद्रियों के निग्रह से है। यहां से वे 64 कलाएं आती हैं जिनमें रसासिक्त उन्मत सरस्वती नदी से प्रवृत्त गणिकायें और दासियां चरम आनंद का पर्याय बनती हैं। लेकिन यह अप्सरारूपी सरिता समस्त बंधनों से मुक्त होती है। उसकी तालीम स्वतंत्रता सत्यापन की खोज से मुक्त रहती है। वह प्रशंसा प्रसिद्धि और भाग्य से परे अपने इकतारा की झंकार से मंत्रमुग्ध करते हुए एक जोगन की भांति विचरण कर अपने उद्देश्यों को प्राप्त होती है। तालीम (शिक्षा) का उद्देश्य क्या है? क्या यह जीविकोपार्जन में सक्षम बनाने के लिए ही है? हमारी शिक्षा प्रणाली ने स्वर्णिम ज्ञान को विस्मृत कर दिया है। आज शिक्षा का पूरा बिंदु लक्ष्मी की खोज बन गया है। इसलिए आत्मज्ञान से परे शिक्षाप्राप्ति की कहानियां करोड़पतियों से जुड़ गईं।