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ऐतिहासिक फिल्म बनाते वक्त रहना होता है सतर्क-संजय लीला भंसाली /28 Feb 2023 12:48 PM/    617 views

सख्त निर्देशक की छवि - संजय लीला

 मुंबई। बाजीराव मस्तानी’ और ’पद्मावत’ जैसी कई हिट फिल्में देने वाले फिल्मकार संजय लीला भंसाली वेब सीरीज ’हीरामंडी’ से डिजिटल प्लेटफार्म पर कदम रखने जा रहे हैं। आगामी दिनों में नेटफ्लिक्स पर प्रदर्शित होने वाली हीरामंडी में मनीषा कोइराला, सोनाक्षी सिन्हा, अदिति राव हैदरी, शर्मिन सहगल, संजीदा शेख और रिचा चड्ढा प्रमुख भूमिका में हैं। इसकी कहानी स्वाधीनता से पहले की पृष्ठभूमि में गढ़ी गई है।
संजय लीला भंसाली को टफ टास्कमास्टर माना जाता है। फिल्म ब्लैक में बतौर असिस्टेंट व फिल्म सांवरिया में अभिनेता के तौर पर संजय लीला भंसाली के साथ काम कर चुके रणबीर कपूर ने कहा था कि एक समय पर उन्होंने अपनी डेब्यू फिल्म छोड़ने तक का मन बना लिया था। वहीं गोलियों की रासलीलाः राम लीला, पद्मावत और बाजीराव मस्तानी में काम कर चुके रणवीर सिंह ने भी कहा था, संजय गुस्सैल हैं, क्योंकि वह अपने कलाकारों से सर्वश्रेष्ठ निकालना चाहते हैं।
 
शूटिंग के बाद होता है चोटों का एहसास
वहीं फिल्म पद्मावत के लांच के दौरान दीपिका पादुकोण ने भी संजय लीला भंसाली के साथ काम करने के अनुभव को साझा करते हुए कहा था, यउनके साथ आप टेक की संख्या की गिनती नहीं कर सकते, आपको बस प्रवाह के साथ चलना होता है। आपको भूल जाना होता है कि भारी पोशाक पहन रखी है या सिर पर दुपट्टा कितना असहज है। शूटिंग के बाद एहसास होता है कि आपको चोटें भी लगी हैं। ऐसे में जब संजय लीला भंसाली से पूछा गया कि उनके हिसाब से वह कितने टफ टास्कमास्टर हैं? तो उनका जवाब था, मैं कोई टास्कमास्टर नहीं हूं।
 
मीडिया ने बनाई छवि
मीडिया ने मेरी यह छवि बनाई है कि मेरे साथ काम करना मुश्किल है और मैं गुस्सैल हूं। हम बस साथ बैठते हैं, कुछ चीजें चर्चा और बातचीत से निकलती हैं, जिसका अर्थ है कि मैं उनके दिमाग का उपयोग करता हूं और वे मेरे। हम सब एक साथ हो जाते हैं और जादू का वह क्षण हमारे पास आता है, जिसका मैं श्रेय लेता हूं और कहता हूं कि मैंने जादू पैदा किया। सच तो है कि यह वह क्षण होता है जो बहुत मेहनत और एकाग्रता, प्रतिबद्धता और दृढ़ विश्वास के बाद आता है। वे मुझे टास्कमास्टर कहते हैं क्योंकि मैं उन्हें तब तक उनकी वैन में नहीं जाने देता जब तक मुझे वह क्षण नहीं मिल जाता। वह पल हम सभी के लिए बहुत कीमती है और यह सभी के कारण आता है।
 
विशेष है यह प्रोजेक्ट
डिजिटल प्लेटफार्म के लिए कंटेंट बनाने को लेकर उनकी प्रक्रिया में कोई बदलाव आया है? इस संदर्भ में संजय लीला भंसाली कहते हैं कि डिजिटल प्लेटफार्म को लेकर कुछ अलग तरह से सोचने की जरूरत नहीं थी। मैंने अपनी पहली फिल्म खामोशी पर काम करने में जितने घंटे बिताए हैं,उतने घंटे हीरामंडी पर काम करने में बिताए हैं, बल्कि सच कहूं तो दस गुना अधिक। हीरामंडी मेरा अब तक का सबसे बड़ा प्रोजेक्ट है। यह बड़े पैमाने पर है और मुझे कुछ खास करना है। मुझे डिजिटल माध्यम के अनुकूल नहीं होना पड़ा।
मेरे लिए यह फिल्म बनाने जैसा रहा। मैंने 30 साल में 10 फिल्में बनाई हैं और इस सीरीज को बनाते हुए लगता है कि पिछले डेढ़ साल में मैंने तीन फिल्में बना लीं, क्योंकि इस सीरीज में आठ एपिसोड हैं। यहां बहुत सारे ट्रैक होते हैं तो लगातार स्क्रिप्ट पर काम करना होता है। निश्चित रूप से यहां फिल्मों की तुलना में काम के घंटे और मेहनत बढ़ जाते हैं। अममून मैं अपने काम के बारे में बात नहीं करता, लेकिन यह वाकई स्पेशल है। मुइन बेग इस आइडिया को लेकर मेरे पास 14 साल पहले आए थे। फाइनली अब यह बन गया। इसमें मैंने कई ऐसी चीजें की हैं, जिन्होंने मुझे भी आश्चर्यचकित किया है।
 
दिमाग में बन रही थी दुनिया
हीरामंडी से विशेष लगाव को लेकर संजय कहते हैं,जब आप किरदार और विषय से जुड़ते हैं तो रुझान बढ़ जाता है कि वे तवायफ कौन थीं, जो रानियों की तरह रहीं। वो कैसी रहीं होंगी? उनके कदमों में नवाब, ब्रिटिश अफसर, राजनेता रहते थे। अब न तवायफ रहीं और न नवाब। ये चीजें मेरे दिमाग में 14 साल तक चलती रहीं। मैंने ज्यादातर फिल्में ऐसी बनाईं जो आठ या 10 साल तक मेरे दिमाग में रहीं। इनमें बाजीराव मस्तानी, देवदास प्रमुख हैं। हीरामंडी तो 14 साल से दिमाग में थी। अब उस दुनिया को मैं कैसे दिखाऊं, जिसे मैंने देखा ही नहीं। तब अपनी कल्पनाओं को वहां पर इस्तेमाल करता हूं। इसके लिए मैंने सबसे पहले ठुमरी बनाई। वहां की एनर्जी से लगा कि सही रास्ते पर हूं। उसके बाद इन खूबसूरत अभिनेत्रियों को कास्ट किया। सभी चीजें अपनी जगह बैठने लगीं।
 
छोड़ देता हूं अपनी छाप
संजय लीला भंसाली ने कई ऐतिहासिक फिल्में बनाई हैं और वे विवादों में भी फंसी हैं। उनके बारे में बात करते हुए वे कहते हैं, जब आप ऐतिहासिक फिल्म बना रहे होते हैं, तब आपको बहुत सतर्क रहने की जरूरत होती है। वहां तथ्यों को सही रखने की आवश्यकता होती है और यहीं मेरा शोध समाप्त होता है क्योंकि इसमें से अधिकांश मेरी कल्पना होती हैं। मैं जाता हूं तो वास्तुकला देखता हूं। वहां जाकर मैं अपनी कहानी की छत, खंभे और कालीनों की कल्पना करना शुरू कर देता हूं। मुझे शोध बहुत उबाऊ लगता है।
मैं एक फिल्म निर्माता के रूप में डाक्यमेंट्री बनाने के लिए तैयार नहीं हूं। मैं चाहता हूं कि मेरे इंप्रेशन फिल्म में नजर आएं। पहले मैं गाना बनाता हूं। संगीत मेरी फिल्मों का अहम हिस्सा रहा है। फिर सोचता हूं उस समय कैसे बात होती होगी, क्या डायलाग मुझे प्रेरित कर रहे हैं। जब लोग कहते हैं कि उन्होंने बहुत शोध किया है तो मैं ऊब महसूस करता हूं। हालांकि वे ऐसा करते हैं तो सही भी होते हैं।

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