आजकल समय के साथ ही खानपान भी बदला है। इसका प्रभाव बच्चों पर भी पड़ रहा है। कुछ वर्षों से भारत में भी बच्चों में मोटापा एवं अन्य बीमारियां तेजी से बढ़ता ही जा रही हैं। ये सारी बीमारियां मूल रूप से खानपान की गलत आदतों एवं मोटापे के कारण पनप रही हैं। कुछ बीमारियां बच्चे मां-बाप से गर्भ में ही उपहार स्वरूप प्राप्त कर रहे हैं। गौर से विचार किया जाये तो इस प्रकार के रोगों के लिए जिम्मेदार है सही खानपान का न होना। अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को उनकी मनपसंद टाफी, कोल्ड ड्रिक, आइसप्रीम आदि खाने को दे रहे हैं। यह एक ऐसा उपाय है जिससे वे बच्चों पर अपना प्यार जाहिर करना चाहते हैं या फिर उनसे अपना मनमाफिक काम करवाने का आसान तरीका मानते हैं। यदि बच्चा होमवर्प नही कर रहा हो या फिर खेलने की जिद्द कर रहा हो तो इस प्रकार के जंक फूड की सहायता लेने में मां-बाप तनिक भी नही हिचकते लेकिन जब जंक फूड से होने वाली बीमारियां गंभीर रूप धारण करने लगी हैं तो इनके विज्ञापनों पर रोक लगाने की मांग बढने लगी है।
अधिकांश बच्चे टी.वी. और कम्प्यूटर से जुड़े हैं। वे न तो खेल के मैदान में जाते हैं, न ही किसी प्रकार का व्यायाम करते हैं। पढ़ाई और टी.वी. यानी चारदीवारी के अंदर कैद बच्चे। तो फिर विज्ञापन इन बच्चों को केंद्रित कर ही क्यों न बनाया जाये, यह मानसिकता है विज्ञापनदाताओं की।
वास्तविकता तो यह है कि बच्चों की मुहर किसी भी सामग्री को घर के अंदर प्रवेश दिला सकती है, खासकर घरेलू व दैनिक उपयोग का सामान। बच्चे तो कोरा कागज हैं, उन्हें हानि-लाभ का क्या पता? जिद कर बैठते हैं कि हमें अमुक ब्रांड की अमुक टाफी, कोल्ड ड्रिक वगैरह चाहिए और अभिभावक बिना कुछ सोचे-समझे उनकी मांग पूर्ति कर देते हैं। लेकिन अब हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी। विदेशों में जंक फूड को लेकर बहसबाजी छिड़ गयी है। इनके विज्ञापनों पर रोक लगाने की पुरजोर मांग की जा रही है। अमेरिका में फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन ने जंक फूड बनाने वाली कंपनियों पर तीस प्रतिशत कर लगाने की मांग की है। जन-जागरूकता अभियान के तहत इनके अवगुण बताये-समझाए जा रहे हैं। आज पश्चिमी देशों का अंधानुकरण करने का हमारे देश में प्रचलन काफी बढ़ गया है। इसलिए जरूरत है जंकफूड की जगह बच्चों को सेहतमंद खाने की ओर ले जाने की।