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बड़ा सवाल यह है कि 70 प्रतिशत अंक को ‘ब्रिलिएंट’ होने की गारंटी कैसे मान लिया जाए? /04 Sep 2023 01:47 PM/    123 views

न्याय से वंचित हो रहे कानून के छात्र

दो बड़ी खबरें आईं हैं। मध्य प्रदेश विधि एवं विधायी विभाग ने एक साथ 6 महिला सिविल जजों(क्लास-2) की सेवाएं समाप्त कर दीं। ये सभी प्रोबेशन पीरियड में थीं। फैसला हाईकोर्ट की सिफारिश पर लिया गया। इनकी सेवाओं को संतोषजनक नहीं पाया गया था। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल के अनुसार यह रूटीन प्रक्रिया है। प्रोबेशन पीरियड में जिनकी सेवा संतोषजनक नहीं रहतीं, उनकी नियुक्ति का कन्फर्मेंर्शन नहीं किया जाता है। बात सही है, जब सेवा संतोषजनक नहीं रही तो कन्फर्मेशन किस आधार पर करते? फिर भी कुछ सवाल जेहन में उभरना स्वाभाविक है। मसलन, क्या इन महिलाओं ने सिर्फ रट्टा मार कर सी.जे. चयन प्रक्रिया की दोनों परीक्षाएं यानि प्रिलिम और मेन पास कर ली थीं? क्या उनकी कमजोरियां साक्षात्कार के दौरान सामने नहीं आ पाईं? चयन के बाद उन्होंने प्रशिक्षण के दौरान सीखा क्या था? और अहम सवाल यह है कि उन्हें कथित ट्रेनिंग में सिखाया क्या गया था? तय मानें, यह उदाहरण कम से कम उन युवाओं को सतर्क कर देगा जो सिविल जज बनने की तैयारी में लगे हैं। 
दूसरी खबर, मध्य प्रदेश में विधि और विधायी कार्य विभाग द्वारा जारी मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा(भती तथा सेवा शर्तें नियम) 1994 में संशोधन की अधिसूचना से जुड़ी है। अधिसूचना को लेकर हड़कंप सी स्थिति है। फैसले का विरोध होने लगा है। संभव है कि इस फैसले को जल्द ही चुनौती दे दी जाए। ताजा अधिसूचना के अनुसार अब मध्य प्रदेश में सिविल जज बनना आसान नहीं होगा। पात्रता मापदंड के अनुसार अब तीन साल की लॉ प्रैक्टिस करने वाला या पहले प्रयास में एलएलबी पास करने वाला अभ्यर्थी, जिनके 70 प्रतिशत अंक हों, वही सिविल जज की परीक्षा में बैठ सकता है। अनुसूचित जाति और जनजाति के अभ्यर्थी 50 प्रतिशत अंक लाने पर परीक्षा के लिए पात्र माने जाएंगे। सिविल जज बनने के लिए तीन साल की प्रैक्टिस या 70 प्रतिशत अंकों के साथ पहले प्रयास में एलएलबी की परीक्षा पास करने की अनिवार्यता, इन दोनों ही शर्तों का विरोध होने लगा है। कहा जा रहा है कि ये शर्तें उन हजारों युवाओं पर प्रत्यक्ष हमले ही तरह हैं जो जिन्होंने सिविल जज बनने के लिए कानून की कठिन पढ़ाई की और अब चयन परीक्षा के लिए तैयारी में लगे हैं। सोशल मीडिया में इस फैसले की आलोचना हो रही है। अकाट्य तर्क दिये गए हैं। यह माना जा रहा है कि तेलंगाना हाईकोर्ट, आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूर्व में दिए गए फैसलों के आधार पर मध्यप्रदेश में ऐसी अनिवार्यता को चुनौती दी जाएगी। 
एक जानकार का कहना है कि प्रथम प्रयास में ही 70 प्रतिशत अंकों से एलएलबी पास करने की शर्त सिरे से खारिज करने योग्य है। प्रतिष्ठित विधि शिक्षा संस्थानों से निकले स्नातक मानते हैं कि 70 प्रतिशत अंक लाना बेहद कठिन काम होता है।  65 प्रतिशन अंक को ही उपलब्धि माना जाता है। आधा दर्जन ऐसे विधि शिक्षा संस्थान हैं जहां शिक्षण और अध्ययन की गुणवत्ता पर काफी जोर दिया जाता है। वहां 55 से 65 प्रतिशत के बीच अंक बड़ी बात होती है। मध्यप्रदेश में सिविल जज पात्रता नियम में शर्त 70 प्रतिशत अंकों तक सीमित नहीं है बल्कि उसके साथ प्रथम प्रयास जैसा रोड़ा लगा दिया गया। शिक्षाविद् जानते हैं कि कई बार मेधावी छात्र भी नियमित परीक्षा नहीं दे पाते हैं जबकि वो 70 प्रतिशत से अधिक अंक पाने की क्षमता रखते हैं। ऐसे छात्रों को सिविल जज बनने से रोकना क्या सही कदम होगा? एक बड़ा व्यावहारिक तर्क दिया गया है। विशेषज्ञ के अनुसार गत दो दशक के दौरान कानून की पढ़ाई के प्रति काफी रुझान देखा गया है। विधि विश्वविद्यालयों ने कानून की पढ़ाई के लिए ललक बढ़ाई है। लेकिन, बदले माहौल में बहती गंगा में हाथ धोने जैसी कहावत को चरितार्थ होते देखा जा सकता है। कई संस्थानों ने न्यूनतम आवश्यक संसाधन जुटा कर अपने यहां कानून की 
पढ़ाई शुरू करा दी। छात्रों को आकर्षित करने के लिए बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं। वहां उपलब्ध शिक्षण स्तर पर कोई टिप्पणी उचित नहीं होगी लेकिन कुछ पर नजर रखने की जरूरत अवश्य महसूस होती है। इनमें से कितने संस्थान गुरूकुल भावना से चलाये जा रहे हैं और कहां शिक्षा की दुकानें खुल गईं? प्रतिष्ठित संस्थानों में शिक्षण और मूल्यांकन के मामले में रत्तीभर समझौता नहीं होता होगा किंतु विशुद्ध दुकानों की तरह संचालित संस्थानों में क्या 70 प्रतिशत वाली रेवड़ी को रोकना संभव हो पाएगा? बड़ा सवाल यह है कि 70 प्रतिशत अंक को ‘ब्रिलिएंट’ होने की गारंटी कैसे मान लिया जाए?  सैंकड़ों उदाहरण हैं जिनसे साबित करते हैं कि किताबी ज्ञान की अपनी सीमा है और व्यावहारिक समझ की अपनी व्यापकता।  स्कूल-कालेज में अव्वल रहे छात्रों को भी औसत रहे छात्रों से कॅरियर की दौड़ में पिछड़ते देखा गया है। एक प्रतिष्ठित लॉ यूनिवर्सिटी का पूर्व छात्र बताता है कि परीक्षा में 80 प्रतिशत तक अंक लाने वाली उसके साथ की एक छात्रा प्रतिष्ठित लॉ फर्म द्वारा लिए गए प्लेसमेंट इंटरव्यू में प्रश्रों के उत्तर नहीं दे सकी थी। घबराहट के चलते वह रोने लगी। वही छात्रा आज एक प्रतिष्ठित पद पर आसीन है। शायद उस समय उसमें विषय के व्यावहारिक पक्ष की समझ का अभाव रहा होगा।   
इसी तरह तीन साल की वकालत का मापदण्ड युवाओं के सपने तोड़ने वाला है। क्या तीन साल की वकालत काम सिखा देने की गारंटी देती है? कानून की डिग्रीधारी किसी युवा को वकालत पेशे की बारीकियां सिखाएगा कौन? अपने बूते वकालत के गुर सीख लेना लगभग असंभव होता है। आमधारणा यह है कि पांच-सात साल की प्रैक्टिस के बाद ही फर्स्ट जनेरेशन एडवोकेट अपनी पहचान बना पाता है। इसे काफी लंबा समय कह सकते हैं। धारणा यह है कि वकालत पेशे में वही युवा वकील आसानी से पहचान बना पाता है जो या तो अधिवक्ता परिवार से हों या जिसे किसी प्रतिष्ठित वकील से जुड़ने का मौका मिल गया हो। तीन से पांच साल की लंबी और कठिन कानूनी पढ़ाई, उसके बाद तीन साल की प्रैक्टिस, जाहिर है कि जज बनने का सपना संजोया युवा अधेड़ावस्था की ड्योढ़ी कदम रख चुकेगा। इतने इंतजार और संघर्ष के बाद भी सिविल जज नहीं बन पाने की स्थिति में वह करेगा क्या? तीन साल की वकालत-प्रैक्टिस का रोड़ा उन युवाओं को भी हताश कर रहा है, जिन्होंने पारिवारिक या आर्थिक कारणों से कोई नौकरी पकड़ ली। तमाम व्यस्तताओं  के बावजूद वो चयन परीक्षा की तैयारी करते हैं। ऐसे युवा तीन साल की प्रैक्टिस कैसे दिखाएंगे?
कुल मिलाकर सिविल जज चयन परीक्षा के लिए पात्रता में किया गया उपर्युक्त संशोधन किसी भी दृष्टि से सही नहीं है। विधि शिक्षा के एक जानकार के अनुसार राज्य सरकार  के इस नोटिफिकेशन ने उन हजारों युवाओं की आंखों के सामने अंधकार छा दिया है जो जज बनने के लिए तैयारी में जुटे थे। ऐसे युवाओं के सामने दो ही रास्ते हैं। या तो न्यायपालिका में जाने का विचार छोड़ दें या फिर इस नोटिफिकेशन को न्याय पालिका में चुनौती दी जाए। इसी तरह ही स्थिति तेलंगाना में उत्पन्न हो गई थी। हाईकोर्ट ने सिविल जज पद के लिए इसी तरह की पात्रता को 2019 में असंवैधानिक करार दिया था। 2021 आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट भी इसी तरह का निर्णय दे चुका है।  सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में ऐसी किसी पात्रता को मान्य नहीं माना था। विशेषज्ञों के अनुसार शेट्टी कमीशन ने तीन साल की प्रैक्टिस की शर्त को गलत माना था। ताज्जुब होता है कि सुप्रीम कोर्ट, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश हाईकोर्टों के स्पष्ट निर्णयों के बावजूद कई राज्य सिविल जज के लिए पात्रता में इस तरह की टेढ़ी और असंवैधानिक शर्तें जोड़ने की कोशिश करते रहे हैं। 
विधि छात्र को ब्रिलिएंट मानने वाली मध्य प्रदेश विधि एवं विधायी विभाग की शर्त में एक विरोधाभास भी है। सामान्य और अन्य पिछड़े वर्ग के लिए प्रथम प्रयास में एलएलबी की परीक्षा 70 प्रतिशत अंकों से पास होने की शर्त लगाई गई है जबकि अजा-जजा के लिए यह 50 प्रतिशत है। क्या यह बौद्धिक स्तर में अंतर देखने जैसी बात नहीं है? इस पर अवश्य गौर किया जाना चाहिए। चलते-चलते एक सुझाव। मान लें, प्रथम प्रयास में 70 प्रतिशत अंक लाने वाला ही ब्रिलिएंट स्टूडेंट होता है तो फिर चयन परीक्षा की क्या जरूरत है? सीधे साक्षात्कार की व्यवस्था हो सकती है। इससे कानून की पढ़ाई करने का साहस वही युवा जुटाएंगे, जिनके पास  जिगर, जुगत या कोई जुगाड़ होगा।

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