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क्या मणिपुर की आग को बुझाने के लिए वहां प्रधानमंत्री का जाना राजधर्म नहीं था ? /18 Jan 2024 04:49 PM/    36 views

आज का राजधर्म रामललामय होना.....

चुनी हुई सरकारों के राजधर्म के बारे में 2002  से पहले कभी कोई सवाल नहीं किया गया था । देश के गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने अपनी ही पार्टी की गुजरात सरकार को राज्य  में हुए दंगों के बाद राजधर्म की याद दिलाई थी। आज 22  साल बाद राज्यों की निर्वाचित  डबल इंजिन की सरकारों ने अपना राजधर्म खुद चुन लिया है ।  क्योंकि केंद्र की सरकार ने अपने राजधर्म के संकेत सार्वजनिक रूप से देश को दे दिए हैं। आज देश और राज्यों का राजधर्म, धर्मनिरपेक्षता नहीं अपितु रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा है।
राजधर्म आखिर है क्या ? राजधर्म की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है।राजधर्म का मोटा सा अर्थ   राजा का धर्म या राजा का कर्तव्य माना जाता है । राजा  को देश का संचालन कैसे करना है, इस तकनीक को ,प्रणाली को   ही राजधर्म है। मान्यता है कि राजधर्म की शिक्षा के मूल वेद हैं। मनु स्मृति में ,अर्थशास्त्र में और महाभारत में राजधर्म की अपने-अपने ढंग से व्याख्या की गयी है। राजधर्म की ये तमाम व्याख्याएं  देश-काल और परिस्थितिजन्य है।  कलियुग में जब राजा नहीं होता तब राजधर्म क्या हो ये बताने वाला कोई वेद नहीं है ,कोई शास्त्र नहीं है सिवाय संविधान के। और आजकल संविधान की बखिया उधेड़ी जा रही है। आज निर्वाचित प्रधानमंत्री ने खुद को राजा मान लिया है और उसका जो धर्म है उसे ही राजधर्म माना और मनवाया जा रहा है।
मौजूदा सदी के पहले सर्ग के पच्चीस साल पूरे होने को है। इस समय का राजधर्म भारत में तो कम से रामलला की नवनिर्मित मंदिर  में प्राण-प्रतिष्ठा के अलावा कोई नहीं है। इस राजधर्म के लिए डबल इंजिन की सरकारों ने आपने-अपने खजाने के मुंह खोल दिए हैं। जिस अयोध्या को आबादी के हिसाब से एक सामान्य  हवाई अड्डे की जरूरत है वहां विशेष हवाई अड्डा बना दिया गया है। अयोध्या की जनसंख्या 2011  में 55  हजार थी ,मान लीजिये आज एक लाख से ज्यादा हो गयी हो गयी होगी ,लेकिन वहां आज अयोध्या देश की राजधानी दिल्ली और उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी है।
अयोध्या की आबादी जब 55  हजार से भी कम थी तब भी अयोध्या भगवान राम का जन्मस्थल होने की वजह से महत्वपूर्ण थी ।  लेकिन अचानक राज्य की सरकार को सपना आया कि नहीं अयोध्या और ज्यादा महत्वपूर्ण नया राम मंदिर बनने और उसमें रामलला की नई प्रतिमा स्थापित होने के बाद होगी ,इसलिए वहां चतुर्दिक विकास कराया जाये। यूपी और दिल्ली की सरकारें इस सपने को साकार करने के लिए निशियाम जुट गयीं और आज की जो अयोध्या है वो कल की अयोध्या से सर्वथा भिन्न अयोध्या है। इस अयोध्या में रजतपट के बादशाह अमिताभ बच्चन ने एक विशाल भूखंड खरीद लिया है। यहाँ बड़े-बड़े होटल खुल गए हैं ,यहां सरयू के तट पहले जैसे नहीं रहे। यहाँ राम जी और उनके भक्तों के लिए वे सब फाइव स्टार सुविधाएं मुहैया करा दी गयीं हैं जो अमेरिका के लास एंजिल्स में मिलती हैं।
बहरहाल बात राजधर्म की है ।  हम मानते हैं कि नहीं था,क्योंकि 2002  के जलते गुजरात में भी तो कोई नहीं गया था। राजधर्म  लक्ष्यद्वीप में छुट्टियां मनाना होता है। राजधर्म किसी धार्मिक समारोह में वास्तविक या सांकेतिक जजमान बनना होता है। राम के नाम पर अपने प्रतिद्वंदियों को  ब्लैकमेल ; करना होता है ।  उन्हें  अधर्मी और असुर के रूप में प्रचारित करना होता है।  सियाराम मय सब जग जानी  नहीं होता। कोई रामलला के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में जाने या न जाने से अधर्मी और असुर और देशद्रोही हो सकता है ये पहली बार पता चल रहा है।
देश में दो महीने बाद होने वाले आम चुनाव में न केवल नयी सरकार का चुनाव होना है बल्कि  राजधर्म  की नई व्याख्या भी तय होना चाहिए। अब कोई राजनीतिक दल या व्यक्ति  राजधर्म  की परिभाषा तय नहीं करे बल्कि ये अधिकार जनता को सौंपा जाये। राजधर्म संविधान में उल्लेखित संकल्प हों या कुछ और ? जब चुने हुए लोग संविधान की शपथ लेकर सत्ता के सूत्र सम्हालते हैं तो उन्हें संविधान  में उल्लेखित राजधर्म का पालन करने के लिए बाध्य किया जाये या नहीं ? या फिर जो शासक का निजी धर्म हो ,उसे ही जनता का धर्म मान लिया जाए  और उसे ही मानने की राजाज्ञा ख्फतवा, प्रसारित की जाये ?
मुमकिन है कि आज हमारे पाठकों को ये विषय अप्रासंगिक लगे ,लेकिन आज नहीं तो कल यानि 22  जनवरी के बाद देश को इस विषय  पर विमर्श करना पडेगा,अन्यथा  ये देश उसी तरह  राजधर्म  के मुद्दे पार विखंडित हो सकता है जिस तरह महाबली सोवियत संघ  हुआ या दूसरे देश हुए। हमें देश की भी फ़िक्र है और  राजधर्म  की भी। आपको  यदि इनके बजाय सिर्फ प्राण-प्रतिष्ठा समारोह की फ़िक्र है तो अवश्य कीजिये। लेकिन देश के राजधर्म के बिना कुछ बचेगा  भी क्या ? इसका विचार भी कर लीजिये। महत्वपूर्ण बात ये है कि आज के मोदी युग में भारत में  राजधर्म  की व्याख्या कोई शंकराचार्य   तो कर नहीं सकते,उन्हें जब सरकार ही अमान्य कर चुकी है तब किसी और से क्या तवक्को की जा सकती है। लेकिन एक किताब जिसे संविधान   कहते हैं उसमें ये शक्ति   निहित है कि वो  राजधर्म की व्याख्या कार सके। किन्तु यदि संविधान  को भी शंकराचार्यों की तरह खारिज करने का मन बना लिया गया हो तो कोई,कुछ नहीं कर सकता। जय सिया राम।
 

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