अट्ठारहवी लोकसभा के चुनाव की अधिसूचना जारी होने के पहले ही राजनीतिक दलों, विशेषकर प्रतिपक्ष की गतिविधियाँ प्रारंभ तो हो गई थी मगर अंत तक बीच बीच में टूट-फूट की ख़बरें भी आती रही। कभी ममता दीदी नाराज़ तो कभी कोई और नाराज़। कोई सनातन विरोधी या संपत्ति के बँटवारे का बयान दे देता तो कोई राम-मंदिर के विरोध में बोल देता। कोई एक समुदाय विशेष को धार्मिक आधार पर आरक्षण देने की बात कह देता तो बीजेपी वालों को उसे हिदू विरोधी बताकर भुनाने में देर नहीं लगती। इधर एनडीए का अधिकांश समय एससी/एसटी वर्ग का आरक्षण अक्षुण्ण रहेगा, आश्वस्त करने में ही चला जाता था। इंडी गठबंधन का अधिकांश समय व ऊर्जा भी इसी ‘लगाई-बुझाई’ में ही खर्च हो रहा था। इसके बावजूद गठबंधन ने सारे एक्जिट पोल को झुठलाते हुए जो बढ़त प्राप्त की है वह गठबंधन के लिए एक आशाजनक परिणाम कहा जा सकता है। मोदी जी का नारा चार सौ पार का था। मगर वे यह लेख लिखा जाने तक 292 सीट जीतकर सरकार भले ही बना रहे हों, मगर यह सिर्फ़ आँकड़े के अनुसार जीत है, कम से कम नैतिक जीत तो हरगिज नही है।
चुनाव का पहला रुझान इस वर्ष 22 जनवरी से ही आना शुरू हो गया था जब गठबंधन वालों ने राम-मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का निमंत्रण ठुकरा दिया था। उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से यह धारणा स्थापित कर दी थी कि मंदिर निर्माण का श्रेय बीजेपी को ही दिया जा सकता है। एक आम सनातनी हिदू के लिए अपना मत तय करने के लिए यह नेरेटिव बहुत बड़ा फ़ेक्टर है। महँगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे पीछे छूट गए और सीएए, ट्रिपल तलाक, अनुच्छेद 370 हटाने जैसे मुद्दे चर्चा में रहे। वही गठबंधन के नेता कई बार संयम खोते नज़र आए। हद तो तब हो गई जब एक बड़े नेता मोदी जी के लिए वे तू-तड़ाक की भाषा पर आ गए। अगर यह संयम नही खोया होता और मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में जाने से इनकार नही किया होता तो गठबंधन और भी बेहतर परिणाम दे सकता था।
इन परिणामों से जो तथ्य उभरकर सामने आते हैं वह यह कि - ‘दो लड़के’ अनुमान से बड़के साबित हुए हैं। अगर कांग्रेस और सपा मिलकर एक हो जाएँ (जो बहुत दूर की कौड़ी है) तो एनडीए के लिए बहुत बड़ी चुनौती साबित हो सकते हैं। अप्रासंगिक कोई साबित हुआ है तो वह है लालू का परिवार। रोहिणी आचार्य हार गई हैं और मीसा भारती कोई बहुत भारी अंतर से नहीं जीती हैं। आरजेडी का नाम लेते ही सबसे पहले चारा घोटाले में दंडित हो चुके और नौकरी के बदले ज़मीन लिखा लेने के आरोपी लालू जी का चेहरा सामने आता है। इसके बाद भी वे 4 सीटें प्राप्त कर सके हैं, जिनका पिछली बार खाता भी नहीं खुला था। यही उनकी उपलब्धि है। बीएसपी तो पूरी दौड़ में कहीं दिखाई ही नहीं दी। उनके जहाँ भी उम्मीदवार थे उन्होंने गठबंधन का ही नुकसान किया है।
ये परिणाम एनडीए को भले ही सत्ता में लौटा लाए हों, मगर बीजेपी के लिए ख़तरे की घंटी साबित हुए हैं। मतदान के प्रति मतदाता की उदासीनता भी इसका एक कारण हो सकता है। गर्मियों में चुनाव करवाना सही कदम नही था, यह चुनाव आयोग ने भी स्वीकार किया है। लेकिन ये फ़ेक्टर दोनों पक्षों पर समान रूप से लागू होते हैं। राहुल गांधी दोनों सीट से बड़े अंतर से जीते हैं और यह अंतर मोदी जी जिस अंतर से जीते हैं उससे बहुत ज़्यादा है। हमें मानना होगा कि मोदी जी की लोकप्रियता में कमी आई है और राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ी है। इसमें अगर उनकी एक लाख रु सालाना देने और गठबंधन की पाँच किलो अनाज के बजाय दस किलो देने की मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने वाली योजना का भी योगदान हो तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।
एनडीए ने विपक्ष के जिन नेताओं पर लाखों करोड़ों के घोटालों के आरोप लगाए थे उनमें से कुछ जब उनके साथ हो गए तो बेदाग़ हो गए। क्या इससे जनता में ग़लत संदेश नहीं गया होगा। जिस दल को आप ‘ पार्टी विथ डिफरेंस’ होने का तमगा लगाते हैं उसने भी तो वही किया जो दूसरे दल करते आए हैं। एनडीए सरकार बना भी ले तो उसमें दो घटक- नीतीशकुमार का जेडीयू और चंद्राबाबू नायडू की टीडीपी, जिन पर इंडी गठबंधन ने अभी से डोरे डालने शुरू कर दिए हैं। चंद्राबाबू तो एनडीए में पहले पलटी मार ही चुके हैं और नीतीशकुमार को ख़ुद याद नही होगा कि वे कितनी बार पलटी मार चुके हैं। मान लो इनमें से किसी को भी अगर पीएम बनने का लालच दिया जाए तो क्या इन्हें पाला बदलने में देर लगेगी? यानी अपनी शर्तों को मनवाने वाली दलबदलू सरकार का दौर भी देखना पड़ सकता है। मोदी जी ने जब यह कहा था कि ‘एटनबरो की ‘गांधी’ फिल्म से पहले गांधी जी को कोई नही जानता था’ तो उसका मखौल उड़ना स्वाभाविक था। हो सकता है कि जनता ने इसे पसंद नही किया हो। मगर हमें यह नही भूलना चाहिए कि भोपाल की सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने एक बार माहात्मा गांधी को लेकर अमार्यादित टिप्पणी कर दी थी तब मोदी जी ने कहा था कि “मैं उन्हें (प्रज्ञा ठाकुर को) कभी माफ़ नही कर सकूँगा। इस चुनाव की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि अब ईवीएम की पवित्रता पर उँगली उठना बंद हो गई है। अग्नि परीक्षा में वह अपनी पाकीज़गी साबित करने में सफल रही है। अब इससे आगे क्या? मोदी जी भले ही सरकार बना लें, मगर उनको पूरी तरह से आत्मावलोकन करने की ज़रूरत है। अगर सभी वर्गों का विश्वास प्राप्त नही कर सके तो अगली बार ‘फिर एक बार। मोदी सरकार’ का नारा ‘फिर एक बार, माफ़ करना यार’ में परिवर्तित न हो जाए! बहरहाल, जो भी सरकार बने, पाँच साल पूरे करे, दलबदल को बढ़ावा न मिले और फ्रीबीज लुटाने की होड़ न मचे। बदजुबानी पर लगाम लगे। अलगू चौधरी और जुम्मन शेख के बीच बढ़ती खाई को पाटना भी नई सरकार का पहला दायित्व होना चाहिए।