वह तोड़ती पत्थर, देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर! कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने जब यह कविता लिखी। तबसे लेकर अबतक काफ़ी कुछ बदल गया है। जिंदगी की रफ़्तार बदल गई। लोगों के सोचने-समझने का नज़रिया बदला गया। जीवन के मायने बदल गए और निःसन्देह महिलाओं के जीवन में भी काफ़ी बदलाव आया है। आज महिलाएं आगे तो बढ़ रही हैं, लेकिन आज भी उनके रफ़्तार की गति बहुत धीमी है। तभी तो देश की आज़ादी के 77 वर्ष बाद भी देश की महिलाएं आर्थिक लैंगिक समानता के मामले में पिछड़ी हुई है। हालिया जारी वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ताजा रिपोर्ट की माने तो लैंगिक समानता के मामले में भारत 146 देशों की सूची में 129 वें नंबर पर है। आज भी हमारे देश में औसतन पुरुषों को 100 रुपए कमाई के मिलते है तो महिलाओं को मात्र 39.80 पैसे मिलते है। वैसे यह दस्तूर सिर्फ़ भारत का नही बल्कि पूरी दुनिया का है। आखिर यह भेदभाव क्यों? हम स्त्री को सृजनकर्ता के रूप में देखते। फ़िर उसके द्वारा किया गया कार्य कमतर कैसे हो जाता। यह बात समझ से परे है। देखा जाए तो पुरुषों और महिलाओं में समानता का सवाल बहुत पुराना है। लेकिन, जब योग्यता, क्षमता और दक्षता में दोनों समान हों, तो सिर्फ लैंगिक कारणों से दोनों में विभेद नहीं किया जाना चाहिए! लेकिन, हर क्षेत्र में लैंगिक असमानता बरक़रार है। यहां तक कि खेल संगठन में भी पुरुषों और महिलाओं में फर्क किया जाता है और ये उनको मिलने वाले वेतन, भत्तों में भी साफ़ नजर आता है!
वर्तमान दौर में लैंगिक समानता पर बहस छिड़ी है और इस असमानता का अर्थ महिलाओं के संघर्ष से जोड़कर देखा जाने लगा। जबकि, लैंगिक समानता का सीधा सा अर्थ है कि महिला और पुरुषों को हर क्षेत्र में बराबरी के अवसर मिले। उन्हें न केवल समान वेतन मिले, बल्कि राजनीतिक, सामाजिक आर्थिक क्षेत्रों में भी समानता के भाव से देखा जाए। पर, विडंबना देखिए कि हम बात तो समता और समानता की करते है, लेकिन आज भी महिलाओं को उस नजरिए से नहीं देखा जाता। यहां तक कि उन्हें काम पाने के लिए भी कड़े संघर्ष करने पड़ते हैं। जबकि कमाई के मामले में महिलाएं आज भी बहुत पिछड़ी हुई है। पिछड़ेपन की सबसे बड़ी वजह महिलाओं को उनके काम का उचित पारिश्रमिक नहीं मिलना है। भारत में जिस कार्य के लिए पुरुष को 100 रुपए मिलते है महिलाओं को उसी काम के लिए महज 52 रुपए ही मिलते है। जबकि आर्थिक लैंगिक समानता की सूची में बीते वर्ष 127 वें स्थान पर थे लेकिन अब फ़िसलकर 129 वें स्थान पर पहुंच गए है। यही स्थिति रही तो वर्ष 2047 तक विकसित देशों की श्रेणी में आने के हमारे लक्ष्य को आर्थिक लैंगिक असमानता बाधक बन सकती है।
आज भी हमारे देश में बडे संवैधानिक पद हो, या उद्योग जगत महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले कम ही नजर आती है। यह सामाजिक व्यवस्था की कमजोरी कहे चाहे प्रशासनिक संस्था की लाचारी और बेबसी। लेकिन दोनों ही परिस्थितियों में महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कमतर ही आंका जाता है। महिलाएं ही हैं जो घर और समाज को बेहतर ढंग से चला सकती हैं। फिर क्यों उस महिला को समाज में कमतर आंका जाता है उसे उचित सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता है। उसके द्वारा किए काम का सही मूल्य नहीं दिया जाता। आज पुरुष प्रधान समाज के साथ-साथ महिलाओं को भी इस दिशा में सोचना होगा। इससे इतर अपनी बेहतरी के लिए आगे आना होगा। तभी नए उभरते भारत में महिलाएं भी अपनी बेहतर सामाजिक आर्थिक स्थिति बना सकती है। वरना पितृसत्तात्मक समाज का क्या है, वह तो कोई नई बेड़ियां महिलाओं के पैरों में डालकर उसे नए भारत में भी कठपुतली ही समझेगा, क्योंकि उसकी फितरत में यह सदियों से रहा है। वह सिर्फ़ बात समानता की कर सकता, लेकिन अमल करने की बारी आने पर उसका पौरुष जाग उठता है। जो उसके बदलाव करने की सोच पर अड़ंगे डाल देता है। तभी तो वर्तमान समय में भी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी 15 प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ पाई है।
चेर नामक एक दार्शनिक का मानना था कि महिलाएं समाज की सच्ची शिल्पका होती है। ऐसे में आधुनिकता के दौर में महिलाओं को समाज के अभिन्न अंग के रूप में क्यों स्वीकार नही किया जा रहा है। आज भी महिलाओं को सिर्फ भोग विलास की वस्तु ही समझा जा रहा है। स्त्री पुरूष दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है किसी एक के न होने से दूसरे की कल्पना करना असंभव है। महिलाएं पुरुषों से कम नहीं हैं, उनको भी समान हक है जीवन जीने का ,आजाद रहने का , और उचित वेतन पाने का फिर यह भेदभाव क्यों? इस पर आज समाज के हर वर्ग को जागरूक होने की आवश्यकता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में महिलाओं को उचित स्थान मिले जिसकी वह हकदार हैं। मत बनाइए उन्हें देवीस्वरूपा। मत कहिए जगत जननी लेकिन एक सामाजिक प्राणी होने के वो सभी अधिकार तो दिए ही जा सकते है। जो एक समाज में रहने वाले हर प्राणी के लिए जरूरी है। ऐसे में जब संविधान निर्माता डॉक्टर अंबेडकर महिलाओं की उन्नति के प्रबल पक्षधर थे और उनका मानना था कि किसी भी समाज का मूल्यांकन इस बात से किया जा सकता है कि उस समाज में महिलाओं की स्थिति क्या है। फ़िर क्यों नहीं मानते अंबेडकर की बात। क्यों नहीं मानते हम उनके विचार। निकलिए बाहर दोमुंहे चरित्र से। जिसमें एक ओर संविधान की जय जयकार करते और दूसरी ओर उसी संविधान की अच्छी बातों पर भी अमल नहीं करते। बेहतर और नया भारत नियमों पर चलकर ही बनेगा। सिर्फ़ बातों से नहीं। समाज में रहने वाला हर प्राणी बराबर है। सभी का समान अधिकार और कर्तव्य। यह भावना जब तक विकसित नहीं होगी असमानता और अवन्नति की राह हमारा पीछा नहीं छोड़ेगी। यह हम जितना जल्दी समझ जाएं, वहीं बेहतर होगा।